कन्नौज अधिपति जयचन्द्र देशभक्त या देशद्रोही; एक विश्लेषण

Jaichandra

अंग्रेजी शासन में जिन लोगों ने विद्रोह किया उनको अंग्रेजों ने कायर कहा तथा विद्रोह दबाने में जिनने अंग्रेजों की सहायता की उनको वीर जाति कहा तथा उनको सेना में प्रमुखता दी। उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कई भागों में जहां कुंवर सिंह, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि के नेतृत्व में जहां विद्रोह हुआ वहां उन्नति के कार्य नहीं हुए तथा अधिकांश क्षेत्रों में छोटी लाइन रेल बनी। इसका कुप्रभाव आज तक है।


मुस्लिम शासन में भी जिन लोगों ने विद्रोह किया उनकी निन्दा के साहित्य लिखे गये। अकबर के समय सबसे शक्तिशाली हिन्दूराज्य गोण्डवाना था। रानी दुर्गावती के नेतृत्व में जो शासक वर्ग था वे आज कल दलित गोण्ड कहे जाते हैं, जिनमें पूर्व राज परिवार के लोग अपने को राजगोण्ड कहते हैं। किन्तु उनके जो रसोइया तथा पुरोहित अकबर को भेद दे रहे थे उनको अकबर ने नमकहरामी जागीर दी (काशी, मिथिला के राजा, नासिक के किलेदार) और वे सम्मानित गिने जाते हैं।

 

वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास ’रानी दुर्गावती’ के परिशिष्ट में अबुल फजल को उद्धृत किया है।


इसी क्रम में मुहम्मद गोरी के सबसे प्रबल प्रतिद्वन्द्वी कन्नौज के महाराज जयचन्द का भी देशद्रोही के रूप में बहुत प्रचार हुआ, जो उस क्षेत्र तथा राजा के रूप में अन्याय है तथा देशभक्त वीरों की निष्ठा भंग करता है।


देशभक्त या देशद्रोही का निर्णय कभी कभी कठिन होता है। केवल असफल होना देशद्रोह नहीं है। निर्णय की भूल या साधन की कमी से असफलता हो जाती है। भारत में वीरता तथा देशभक्ति के लिए अद्वितीय मेवाड़ का राजवंश १३०० वर्षों तक भारत की स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष करता रहा। बाबर के आक्रमण के समय मेवाड़ के राणा सांगा ने बाबर को इब्राहिम लोदी के विरुद्ध आक्रमण के लिए बुलाया था। यह सनातन नीति है कि एक शत्रु को दबाने के लिए अन्य की सहायता ली जाती है। भगवान् राम ने भी रावण को हराने के लिए किष्किन्धा राज्य की सहायता ली जिसका राजा बालि रावण का मित्र था। वहां के असन्तुष्ट सुग्रीव पक्ष को सत्ता दिला कर अपने पक्ष में किया था। राणा सांगा ने पुराने तथा नये विदेशियों को आपस में लड़ाने के लिए बुलाया था. जो पूरी तरह उचित था। उसके बाद अकबर के समय भी नये विदेशियों को भगाने के लिए शेरशाह सूरी के लड़के हाकिम खान सूर ने पहले अपने दीवान हेमचन्द्र को राजा बनवाया तथा बाद में राणा प्रताप के सेनापति के रूप में लड़े। किन्तु इब्राहिम लोदी के हारने के बाद राणा सांगा की भी पराजय हुई। उसमें राणा सांगा द्वारा बाबर को बुलाने की भूल नहीं थी। मुख्य कारण दो थे-बाबर की तोप के मुकाबले राणा सांगा के पास कोई हथियार नहीं था। भारत के शस्त्र बल की कमी ८०० वर्षों से चली आ रही है। अभी पिछले ६ वर्षों में भारत में शस्त्र निर्माण पर जोर दिया जा रहा है। राणा सांगा भारी क्षति के बाद बिना तोप के भी जीत गये होते यदि उनके कुछ मुख्य सहायक ठीक अवसर पर धोखा नहीं देते। उनकी नीति से पूरा भारत स्वाधीन होता तथा वे भी तोपखाना आदि बनवाते। मेवाड़ के सभी राजा देश रक्षा के लिए बलिदान करते रहे हैं।


कन्नौज के राजा जयचन्द्र के विषय में जानने के लिए राज व्यवस्था के विषय में चर्चा आवश्यक है। आधुनिक राजनीति शास्त्र के अनुसार विश्व में कोई भी शासन नहीं चल रहा है जैसे भारत का वंशानुगत प्रजातन्त्र। राज्य की स्थापना के ७ तत्त्वों में केवल ४ की ही व्याख्या की जाती है-भूमि, प्रजा, शासन. सम्प्रभुता। किन्तु ३ अन्य मुख्य तत्त्वों का विचार नहीं होता है यद्यपि उनका महत्त्व ज्ञात है। बिना कोष के शासन व्यवस्था नहीं चलती। इसे राजसूय यज्ञ कहा है। प्रजा से कर ले कर देश की व्यवस्था तथा रक्षा होती है जिसको रघुवंश के आरम्भ में सूर्य द्वारा जालाशयों से जल खींचने से तुलना की गयी है। सूर्य जल खींच कर स्वयं नहीं रखता, वह लोगों के लिए वर्षा कर देता है। कोष का महत्त्व सिद्धान्त रूप में नहीं मानने के कारण भारत के राजनैतिक दलों को विविध अनैतिक उपायों से धन संग्रह करना पड़ता है, जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। ९ प्रकार के दुर्ग (नव दुर्गा प्रतीक) भी देश की स्थायी रक्षा के लिए आवश्यक हैं। यह प्राचीन काल से सर्वमान्य सिद्धान्त है। सप्तम तत्त्व है पुरोहित तत्त्व। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह राजा के घर में पूजा करवायेगा। रघुकुल के पुरोहित वसिष्ठ ने कभी पूजा या यज्ञ नहीं करवाया था। वह केवल नीति-निर्धारण करते थे। महाभारत में पाण्डव जब वनवास के लिए जाने लगे तो भगवान् कृष्ण ने कहा कि उनको एक पुरोहित नियुक्त करना चाहिये तब उन लोगों ने महर्षि धौम्य को पुरोहित बनाया। वनवास तथा अज्ञातवास के १३ वर्षों में वे पाण्डवों के साथ कभी नहीं रहे, पूजा करवाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। वे पाण्डवों के प्रतिनिधि रूप में राजधानी हस्तिनापुर में रहते थे, जैसे भारत के हर राज्य ने सर्वोच्च न्यायालयतथा स्थानीय उच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखने महाधिवक्ता रखते हैं। भगवान् कृष्ण के दूत बनने के पहले धौम्य ही दूत बन कर गये थे तथा उनके १२ प्रश्न वैसे ही थे जैसे आजकल लोकसभा तथा विधानसभा में प्रश्न पूछे जाते हैं। दूतों के भी कई स्तर होते हैं-प्रधानमन्त्री स्तर पर जो निर्णय या सन्धि होती है, वह शासन सचिव स्तर पर नहीं हो सकती।

 

अतः सन्धि-विग्रह का निर्णय करने के लिये भगवान् कृष्ण को दूत बन कर जाना पड़ा।
आज का पुरोहित तत्त्व संविधान, कानून तथा प्रजा का धर्म है। धर्म से प्रजा का धारण होता है तथा विश्व के सभी राज्य धर्म आधारित हैं, नकली राजनीति शास्त्र कुछ भी प्रचार करे।


नीति निर्धारण के लिये सम्प्रभुता पर विचार करना आवश्यक है। आधुनिक राजनीति शास्त्र में इसे सर्वोच्च माना गया है। किन्तु भारत में इसके ८ स्तर माने गये हैं-१. राजा-भोज, महाभोज, २. सम्राट्-चक्रवर्त्ती, सार्वभौम, ३. स्वराट्-इन्द्र, महेन्द्र, ४. विराट्-ब्रह्मा, विष्णु। (पण्डित मधुसूदन ओझा का ’जगद्गुरुवैभवम्’-राजस्थानीग्रन्थागार, जोधपुर में ४/३)


ऐतरेय ब्राह्मण (३७/२)-तानहमनुराज्याय साम्राज्याय भौज्याय स्वाराज्याय पारमेष्ठ्याय राज्याय महाराज्याया ऽऽधिपत्याय स्वावश्याया ऽऽतिष्ठायाऽऽरोहामि।


किसी क्षेत्र में अन्न आदि के उत्पादन का प्रबन्ध करने वाला भोज है। कुछ भोजों का समन्वय करनेवाला महाभोज है। पूरे भारत पर शासन करने वाला सम्राट् है-देश के भीतर व्यापार तथा यातायात की सुविधा करने वाला चक्रवर्त्ती तथा देश के बाहर भी ऐसा सम्बन्ध रखने वाला सार्वभौम है। कई देशों पर प्रभुत्व रखने वाला इन्द्र तथा महाद्वीप पर प्रभुत्व रखने वाला महेन्द्र है। विश्व पर ज्ञान का प्रभाव ब्रह्मा का था, बल का प्रभाव विष्णु का है।


प्राचीन काल में काशी ही मुख्य भोज क्षेत्र था, जहां का राजा दिवोदास तथा उसका पुत्र सुदास था-


इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।
विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्रतिरन्त आयुः॥ (ऋक्, ३ /५३/७)


= ये भोज कई प्रकार का उत्पादन (विरूपा आंगिरस) करते हैं, ये देवपुत्र (दिवोदास) असुरों को जीतने वाले हैं। इन्होंने विश्वामित्र के हजारों यज्ञों के लिये प्रचुर सम्पत्ति दी।


महाँ ऋषिर्देवजा देवजूतोऽस्तभ्नात्सिन्धुमर्णवं नृचक्षाः।
विश्वामित्रो यदवहत्सुदासमपियायत कुशिकेभिरिन्द्रः॥९॥


= महान् देवजूत (देव काम में जुता हुआ, दिवोदास) तथा उनके सहायक विश्वामित्र ने सिन्धु तथा अर्णव तक लोगों को गठित किया तथा काशिराज सुदास के यज्ञ में गये। कौशिकों के कार्य से इन्द्र प्रसन्न हुए।


यह विश्वामित्र कान्यकुब्ज (कन्नौज) के ही राजा थे, जो बाद में ऋषि हुए।
काशी ही भोजों की पुष्करिणी (गह्वर-वारि) थी, जिसके पालक गहरवार हुए-


भोजायाश्वं संमृजन्त्याशुं भोजायास्तेकन्या शुम्भमाना।
भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम्॥१०॥


= भोज तेज गति वाले घोड़े उत्पन्न करते हैं, उनकी कन्यायें सुशोभित रहती हैं। भोजों का निवास पुष्करिणी के समान निर्मल तथा देव-मान जैसा सज्जित होता है।


देवानां माने (निर्माणे) प्रथमा अतिष्ठन् कृन्तत्रा (अन्तरिक्ष, विकर्तन = मेघ) देषामुत्तराउदायन्।
त्रयस्तपन्ति (त्रिशूल) पृथिवी मनूपा (जल से भरा क्षेत्र) द्वा (वायु + आदित्य) वृवूकं वहतः पुरीषम् (बुरबक या मूर्ख बहाते हैं पुरीष या मल)। (ऋग्वेद, १०/२७/३०) = यह वाराणसी (त्रिशूल पर स्थित) देवों की प्रथम पुरी है जहां वर्षा, जल, अन्न भरा है। पुरी का अर्थ है जल, अन्न से भरा (निरुक्त, २/२२)


रघुवंश में रघु के पुत्र अज विवाह के लिए विदर्भ राजकुमारी इन्दुमती के स्वयंवर में गये थे। वहां विदर्भ राजा को भोजराज तथा इन्दुमती को भोजकन्या कहा गया है-


आप्तः कुमारानयनोत्सुकेन भोजेन दूतो रघवे विसृष्टः (५/३९)
इतश्चकोराक्षि विलोकयेति पूर्वानुशिष्टां निजगाद भोज्याम् (६/५९)
तत्रार्चितो भोजपतेः पुरोधा (७/२०), इतिस्वसुर्भोजकुलप्रदीपः (७/२९)


उत्तर प्रदेश वर्षा से पूर्ण भाग था, अतः यहां के क्षत्रिय वृष्णि (वर्षा क्षेत्र वाले) जिसमें भगवान् कृष्ण का जन्म हुआ। लोगों का अन्न से पालन करने के कारण ये भोज थे। मथुरा के राजा उग्रसेन तथा उनके पुत्र कंस को प्रशंसा में भोज कहा गया है।


भागवत पुराण, स्कन्ध १०, अध्याय १- श्लाघ्नीय गुणः शूरैर्भवान् भोज यशस्करः॥३७॥
उग्रसेनं च पितरं यदु-भोजान्धकाधिपम्॥६९॥


पश्चिमोत्तर सीमा के रक्षकों को कुक्कुर कहते थे, अंग्रेजी में watchdog। यह प्रशंसात्मक शब्द था। इनके वंशज खोखर हैं, जो अधिकांश मुस्लिम हो गये। जो बचने के लिये पूर्व की तरफ चले गये उनका स्थान असम का कोकराझार है। दक्षिण पूर्व के समुद्र तट पर हर वर्ष अन्धक आता है (आन्धी, जिसमें दीखता नहीं है), वह आन्ध्र है जहां के अन्धक थे। हय (घोड़ा) की सेना वाले हैहय थे, मल्ल युद्ध में चुनौती देने वाले तालजंघ (जांघ पर थपकी देते हैं) थे। रक्षा व्रत (सत्व) के पालक राजस्थान के सात्वत थे।


भागवत पुराण, स्कन्ध ११, अध्याय ३०-दाशार्ह-वृष्ण्य-न्धक-भोज-सात्वता मध्वर्बुदा-माथु-रशूरसेनाः॥
विसर्जनाः कुकुराः कुन्तयश्च मिथस्ततस्तेऽश्चविसृज्यसौ हृदम्॥१८॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/१६)-इत्येते अपरान्ताश्च शृणुध्वं विन्ध्यवासिनः॥६३॥
उत्तमानां दशार्णाश्च भोजाः किष्किन्धकैः सह॥६४॥
(२/३/६१)-कृतां द्वारावतीं नाम बहु द्वारां मनोरमाम्। भोज वृष्ण्यन्धकैर्गुप्तां वसुदेव पुरोगमैः॥२३॥
(२/३/६९)-जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजंघः प्रतापवान्॥५१॥
तेषां पञ्च गणाः ख्याता हैहयानां महात्मनाम्। वीतिहोत्राश्च संजाता भोजाश्चावन्तयस्तथा।।५२॥
तुण्डिकेराश्च विक्रान्तास्तालजंघास्तथैव च॥५३॥


श्री रमाशंकर त्रिपाठी के कन्नौज के इतिहास में लिखा है कि चारणों के अनुसार जयचन्द्र के पूर्वज ययाति के वंशज काशी के राजा देवदास थे। इनको पुराणों में धन्वन्तरि का अवतार दिवोदास लिखा है तथा ऋग्वेद के वर्णन के अनुसार ये पुष्करिणी द्वारा पालन करते थे, अतः इनको भोज कहा जाता था। आज भी प्राचीन काशी राज्य की भाषा ही भोजपुरी कही जाती है। कालान्तर में विदर्भ राज, मथुरा के कंस तथा मालवा के सभी राजाओं को भोज कहा गया है।


जयचन्द्र के समय भी कन्नौज राज्य ही भारत का भोज राज्य था। उनका प्रत्यक्ष शासन वर्तमान उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिमी बिहार तथा झारखण्ड (काशी राजधानी द्वारा) पर था। प्रभाव क्षेत्र में महोबा, मालवा, कलिंग या उत्कल था। हर्षवर्धन (६०६-६४७ ई.) की तरह वे भारत की ६०% से अधिक लोगों के शासक थे। छोटे अधिकारी या छोटे राजा ही शत्रुओं को सहायता के लिए बुलाते हैं। अतः जयचन्द की दृष्टि में पूरे भारत की रक्षा थी। यह इसी से स्पष्ट है कि उनका कोई भी युद्ध व्यक्तिगत वीरता दिखाने या विवाह करने के लिए नहीं हुआ था, यह राज्य विस्तार और संगठन के लिए था। आज तक भारत में वीरता की प्रेरणा देने के लिए आल्हा-उदल के गीत बिहार से राजस्थान तक गाये जाते हैं। वे मूलतः महोबा के थे जो जयचन्द्र का आश्रित राज्य था। बाद में वे स्वयं जयचन्द्र के ही पास रहे। भारत के वीरों का यही आदर्श रहा है जिससे सभी विदेशी डरते थे-बरस अठारह क्षत्री जीये, बाकी जीवन के धिक्कार। लोक गीतों को रोचक बनाने के ले सिनेमा कहानियों की तरह विवाह को प्राथमिकता दी गयी है। विवाह मूल उद्देश्य नहीं था, युद्ध के बाद सन्धि के लिये प्रायः विवाह होते थे। लोकगीतों या इतिहास में भी केवल मुख्य नेताओं की ही कीर्ति रहती है। युद्ध में लाखों लोगों के काम या कौशल का वर्णन सम्भव नहीं है, यदि टेलीकास्ट भी किया जाय। किन्तु सेनापति की रणनीति तथा व्यक्तिगत शौर्य निश्चित रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण है।

 

पृथ्वीराज चौहान की प्रशस्ति में उनके मित्र तथा दरबारी चन्द बरदायी ने पृथ्वीराज रासो लिखा था। उसमें भी जयचन्द्र की निन्दा नहीं है। वरन् द्वितीय तराइन युद्ध में स्वयं पृथ्वीराज की ही निन्दा की है कि वे सोये रहते थे तथा डर से कोई अधिकारी उनको गोरी के आक्रमण के विषय में खबर नहीं दे रहा था। पृथ्वीराज लगातार महीनों तक नहीं सो सकते थे, उनके कहने का आशय यह था कि वह व्यसन में डूबने के कारण राज कार्य पर ध्यान नहीं दे रहे थे। इसके अतिरिक्त अहंकार या मनमानी के कारण अपने ३ प्रमुख सेनापतियों चामुण्ड राय, नरनाह कान्ह तथा धीर पुण्डीर को निष्कासित किया या बन्दी बना लिया था। इस अवसर पर भी मेवाड़ के राजा समर सिंह ही देश रक्षा के लिये सबसे सचेष्ट रहे। वे पृथ्वीराज चौहान के बहनोई भी थे। गोरी की सेना पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं से २० बार पराजित हुई थी तथा तराइन के प्रथम युद्ध (११९१ ई) में वह स्वयं बन्दी हुआ था। अतः अन्तिम युद्ध की तैयारी के लिए उसने ३ लाख सेना एकत्र की तथा शत्रुओं को पकड़ने के लिये जाल द्वारा घेरने वाले दल (महातिर) तैयार किये। अपने जासूसों से राणा समर सिंह को खबर मिली तो उनको लगा कि इस बार बचना कठिन है। अतः उन्होंने अपना श्राद्ध कर पुत्र का राजतिलक किया तथा उपलब्ध १०,००० सेना के साथ दिल्ली के लिये चल पड़े। वहां पृथ्वीराज चौहान को जगाया तथा निष्कासित सेनापतियों को बुलाने के लिए कहा। उनको लज्जा आ रही थी तो राणा समर सिंह स्वयं गये। सभी सेनापतियों ने राजा का अन्याय भूल कर पूरे परिवार के साथ युद्ध में अपनी बलि दी थी। पृथ्वीराज चौहान मूलतः अजमेर के राजा थे तथा दिल्ली का राज्य अपने नाना अनंगपाल के उत्तराधिकारी के रूप में मिला था। अजमेर में उनकी मुख्य सेना का एक भी आदमी नहीं पहुंच पाया। स्वयं दिल्ली की भी पूरी सेना इकट्ठा नहीं कर पाये। उनको सपादलक्ष अर्थात् १२५,००० सेना वाला कहते थे। बहुत सेना पिछले ४-५ वर्षों के कई निरर्थक युद्धों में नष्ट हो गयी तथा वह १०,००० सेना भी एकत्र नहीं कर पाये। राणा समर सिंह की सेना मिलाने पर१८००० के करीब सेना थी। कोई भी बहादुरी उनको ३ लाख सेना से नहीं बचा सकती थी, जिसका अनुमान राणा समरसिंह पहले ही कर चुके थे। इस परिस्थिति में भी जयचन्द्र को दोष देना उचित नहीं है। वह सीमा प्रदेश के शासक नही थे, अतः पश्चिम सीमा से आक्रमण की जानकारी उनको नहीं हो सकती थी। ३ बार सिन्धु तट तक जा कर उन्होंने गोरी पर आक्रमण किया था जिसका उल्लेख पृथ्वीराज रासो में भी है। इसके लिए वे पृथ्वीराज के राज्य से हो कर ही जा सकते थे। पर इसमें पृथ्वीराज चौहान से कोई सहायता नहीं मिली। तराइन के द्वितीय युद्ध की खबर मिलने में समर सिंह को कम से कम १० दिन लगे होंगे। उसके बाद सेना तैयार करने, पुत्र का अभिषेक में २-३ दिन लगे। फिर सेना सहित दिल्ली जाने में भी कमसे कम १० दिन लगेंगे। उसके बाद स्वयं दिल्ली की सेना बुलाने में समय लगा। तब तक गोरी तराइन में डट चुका था। कहा जाता है कि वह सन्धि का प्रस्ताव देकर धोखा दे रहा था। पर यह समय भी नहीं मिलता तो पृथ्वीराज सेना एकत्र नहीं कर सकते थे। यदि राणा समर सिंह के पहुंचने पर जयचन्द्र को निमन्त्रण जाता, तो सन्देश भेजने में ३ दिन, सेना की तैयारी में ३ दिन तथा दिल्ली तक कूच करने में ७ दिन लगते। उससे बहुत पहले युद्ध का फैसला हो चुका था।


जयचन्द्र ने ३ बार सिन्धु तट तक जा कर गोरी पर आक्रमण किया था। पृथ्वीराज चौहान केवल अपनी रक्षा के लिए लड़ते रहे। यदि रक्षात्मक युद्ध लगातार ५० बार भी जीतें तो कभी न कभी हारना ही है। भारत की यही युद्ध नीति अभी तक चल रही है। इस नीति वाले पृथ्वीराज की निन्दा नहीं कर सकते, जयचन्द की कीर्ति निश्चित रूप से कहनी चाहिये।


आक्रमण करने के लिए संगठन यातायात की आवश्यकता होता है। पहले कम से कम १ लाख की संगठित सेना हो, उसके बाद उनके हथियार, अभ्यास, यात्रा व्यवस्था, प्रति ३५-४० किलोमीटर पर छावनी तथा भोजन व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए किसी ने योजना नहीं बनायी। कुछ सीमा तक केवल मेवाड़ तथा कन्नौज ने तैयारी की थी।


पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज को बन्दी बना कर उनको गजनी ले जाकर अन्धा कर दिया तथा चन्द बरदायी के परामर्श से शब्दबेधी बाण से गोरी को मारा। उसके बाद चन्दबरदाई तथा पृथ्वीराज ने एक दूसरे को मार दिया। चन्द बरदाई ने फुसफुसा कर कहा था-चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुलतान है, मत चूके चौहान। यह दूसरे किसी ने नहीं सुना था, दोनों मारे गये, फिर यह कहानी किसे मालूम हुई? यह पृथ्वीराज की दुःखद पराजय के बाद उनकी सम्मान रक्षा के लिए लिखी गई है। बाकी सभी लेखकों ने लिखा है कि पृथ्वीराज की अधिकांश सेना अजमेर में थी अतः गोरी ने उसे जीतना कठिन समझा और अपने अधीन पृथ्वीराज को अजमेर का राजा बनाया। पृथ्वीराज को बहुत अपमानजनक लगता था कि गोरी अजमेर के सिंहासन पर बैठता था तथा उससे दूरी पर अधीनस्थ राजा के रूप में पृथ्वीराज बैठते थे। अतः उन्होंने मन्त्री से कह कर अपना धनुष बाण मंगवाया जिससे वे सिंहासन पर बैठने के समय गोरी को मार सकें। मन्त्री ने धनुष बाण दे दिये किन्तु गोरी से चुगली भी कर दी। गोरी को विश्वास नहीं हुआ। उसने जांच के लिए अपनी मूर्ति सिंहासन पररख दी जिसे पृथ्वीराज ने बाण से तोड़ दिया। उस पर गोरी ने उनको गड्ढे में फेंक कर ऊपर से पत्थर फेंक कर मार डाला। २ महीने अधीनस्थ राजा रहने पर पृथ्वीराज चौहान का पुत्र गोविन्दराय ७ वर्ष तक गोरी तथा उसके बाद कुतुबुद्दीन ऐबक के अधीन अजमेर के राजा रहे। यह प्रायः सभी समकालीन लेखकों का वर्णन है।


इसके विपरीत जयचन्द्र ने इटावा के निकट चन्दावर में गोरी का मुकाबला किया तथा दुर्घटना के कारण जीता हुआ युद्ध हार गये। उसके बाद उनके पुत्र हरिश्चन्द्र ने ७ वर्षों तक कन्नौज-काशी में युद्ध जारी रखा तथा हारने पर मारवाड़ में स्वाधीन राठौर राज्य स्थापित किया। किसी भी घटना से यह संकेत नहीं मिलता कि जयचन्द्र ने कभी गोरी की सहायता की या उससे समझौता भी किया। बल्कि पृथ्वीराज चौहान तथा उनके पुत्र को समझौता करना पड़ा।


पृथ्वीराज रासो तथा अन्य ग्रन्थों के अनुसार मेवाड़ की सहायता के लिए पृथ्वीराज ने कई बार गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव (भोला भीम) को अर्बुद पर्वत के निकट पराजित किया था। भीमदेव ने अपने सेनापति मकवाना को पत्र सहित गोरी के पास भेजा था कि वह पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करे तो भीमदेव सहायता करेंगे। इस पर गोरी को अपना अपमान लगा कि उसको भीमदेव की सहायता लेनी पड़े तथा उसने मकवाना को मार दिया। अतः सभी लेखकों के अनुसार केवल भीमदेव ने गोरी को आमन्त्रित किया था। पर वह गोरी की सहायता करना चाहता था इसलिए भोला बन गया और विरोध करने के कारण जयचन्द्र द्रोही हो गये।


मिर्जापुर के प्रख्यात इतिहासकार श्री जितेन्द्र सिंह संजय के संकलित साहित्य से कुछ उद्धरण दिए जाते हैं।


नयचन्द्र ने अपनी पुस्तक ‘रम्भामंजरी’ में लिखा है-


पितामहेन तज्जन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम्
यवन सैन्य जितम् अतएव तन्नाम जैत्रचन्द्रः।[1]


अर्थात् इनके जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना पर विजय प्राप्त की अतः इनका नाम जैत्रचन्द्र पड़ा।


‘पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार महाराज जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो। महाकवि विद्यापति ने ‘पुरुष परीक्षा’ में लिखा है कि यवनेश्वर सहाबुद्दीन गोरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में परास्त किया।

‘रम्भामञ्जरी’ में भी कहा गया है कि महाराज जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। बल्लभदेव कृत ‘सुभाषितावली’ में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी द्वारा उत्तर-पूर्व के राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने उसे प्रताड़ित करने हेतु अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा-


स्वच्छन्दं सैन्य संघेन चरन्त मुक्तो भयं।
शहाबुद्दीन भूमीन्द्रं प्राहिणोदिति लेखकम्।।
कथं न हि विशंकसेन्यज कुरग लोलक्रमं।
परिक्रमितु मीहसे विरमनैव शून्यं वनम्।।
स्थितोत्र गजयूथनाथ मथनोच्छलच्छ्रोणितम्।
पिपासुररि मर्दनः सच सुखेन पञ्चाननः।।


अर्थात् स्वतन्त्र और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन द्वारा राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने यह पद्य अपने दूतों से भेजा; ऐ तुच्छ मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछल-कूद मचाये हुए है, तेरी समझ में यह वन शून्य है अथवा तुझ-सा पराक्रमी अन्य जन्तु इस महावन में नहीं है, यह केवल तुझे धोखा और भ्रम है। ठहर ठहर आगे मत बढ़, निःशंकता छोड़ देख यह आगे मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासु बैठा है, यह महा-अरिमर्दक है, तेरे ऐसों को मारते इसे कुछ भी श्रम प्रतीत नहीं होता, वह इस समय यहाँ सुख से विश्राम ले रहा है।


महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि. सं.) में लिखे गये फ़ैज़ाबाद ताम्र-दानपत्र में वर्णित है-


अद्भुत विक्रमादय जयच्चन्द्राभिधानः पतिर्
भूपानामवतीर्ण एष भुवनोद्धाराय नारायणः।
धीमावमपास्य विग्रह रुचिं धिक्कृत्य शान्ताशया
सेवन्ते यमुदग्र बन्धन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।
छेन्मूच्छीमतुच्छां न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टामिधात
त्यावृत्तः श्रमार्तो नमदखिल फणश्वा वसात्या सहस्रम्।
उद्योगे यस्य धावद्धरणिधरधुनी निर्झरस्फारधार-
श्याद्दानन्द् विपाली वहल भरगलद्वैर्य मुद्रः फणीन्द्रः।।[2]


यहाँ अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचन्द्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचन्द्र हुए, जो अद्भुत वीर थे। राजाओं के स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात् नारायण के अवतार थे, जिन्होंने पृथ्वी के सुख हेतु जन्म लिया था। अन्य राजागण उनकी स्तुति करते थे। दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनकी हाथियों की सेना के भार से शेषनाग दब जाते थे और मूर्छित होने की अवस्था को प्राप्त होते थे।


उत्तर भारत में महाराज जयचन्द्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार किया था। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ ‘कामिल उत्तवारीख़’ में लिखता है कि महाराज जयचन्द्र के समय कन्नौज राज्य की लम्बाई उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और चौड़ाई समुद्र तट से दस मैजल लाहौर तक विस्तृत थी। साधारणतः 20 मील (10 कोस) की एक मैजल समझी जाती है। इस प्रकार लाहौर से 200 मील की दूरी तक महाराज जयचन्द्र का साम्राज्य फैला हुआ था। ‘योजनशतमानां पृथ्वीम्-असाधयत्’ अर्थात् महाराज जयचन्द्र ने 700 योजन पृथ्वी को अपने अधिकार में किया था। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि महाराज जयचन्द्र के साम्राज्य का विस्तार 5600 वर्गमील था।


‘सूरज प्रकाश’ नामक ग्रन्थ के अनुसार सम्राट् जयचन्द्र की सेना में अस्सी हज़ार जिरह बख्तरवाले योद्धा, तीस हज़ार घुड़सवार, तीन लाख पैदल सैनिक, दो लाख तीरन्दाज एवं हज़ारों की संख्या में हाथी सवार योद्धा थे। इसलिए सम्राट् जयचन्द्र को दलपुंगल कहा जाता था। इतिहास में जयचन्द्र के उज्ज्वल चरित्र का वर्णन मिलता है।

 

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