त्रिपुरा में लेनिन मूर्ति तोड़ने के कानूनी पक्ष; भगत सिंह बनाम लेनिन

Lenin Statue

पुलिस अधिकारी हमेशा कानून की किताब लेकर नहीं चलते। सर्वमान्य सिद्धान्त है-Take action, sections will follow. घटनास्थल पर जो नैतिक रूप से ठीक समझा उसके अनुसार काम किया। थाना आकर 1 घण्टे के अन्दर खोजना है कि अपराध की कौन सी धारायें लगेगी। वकीलों की तरह महीने का समय नहीं मिलता। सरकार ने राजनैतिक हंगामा पर आदेश दिया कि सख्त कार्यवाही की जाय। पर किस कानून से, यह वर्षों तक पुस्तकालय में खोजने पर नहीँ मिलेगा। समाज में व्यवस्था हर परिस्थिति में रखना है।

 

इसमें कई कानूनी कठिनाई आती है। भारतीय दण्ड विधान में मूर्ति तोड़ने के लिए कोई धारा नहीं है। यह mischief कहा जाता है जो बहुत छोटा अपराध है। आग या विस्फोटक द्वारा कोई चीज नष्ट करना विशेष अपराध बनता है।

 

फिर यह देखना है कि किसकी सम्पत्ति नष्ट हुई-संस्था या दल, सरकार या व्यक्ति। किसी ने अपने घर या जमीन पर नही मूर्ति लगाई-ऐसी भक्ति कभी देखने में नहीँ आयी। कम्युनिस्ट पार्टी अपने पैसे से ये सब काम नहीं करती-वह तो सर्वहारा का एकाधिकार बना कर सभी की सम्पत्ति दखल करती है। यदि सरकारी पैसे से बना था, तो उसके लिए कब बजट पास हुआ था? यदि बजट द्वारा सदन की अनुमति नहीँ ली गयी तो यह सरकारी सम्पत्ति के गबन का मामला है।

 

अगला प्रश्न है-मूर्ति तोड़ने का अपराधी कौन? राजनीतिक विरोध के कारण भाजपा को दोषी कह रहे हैं? पर 1 मास पूर्व तक तो भाजपा के लोग त्रिपुरा में मात्र 1.5% थे। ये तोड़ने वाले तो पिछले 25 वर्षों से कम्युनिस्ट ही थे जो आतंक से मुक्ति पाने की खुशी मना रहे हैं।

 

मूर्ति तोड़ने का सम्बन्ध धार्मिक भावनाओं से सम्बन्धित है। विश्व में केवल सनातनी हिन्दुओं को ही मूर्ति पूजक रूप में निन्दा कर 25 करोड़ से अधिक हिन्दुओं की हत्या तथा लाखों मन्दिरों को तोड़ना मुस्लिम तथा इसाई समुदाय द्वारा हुआ है। उसमें एक पर भी जैसे राम जन्मभूमि मन्दिर पर वे खेद प्रकट करने या वापस करने के लिए राजी नहीं हैं।

 

जो स्वयं मूर्ति पूजा के विरोधी हैं, उनकी मूर्तियों को तोड़ना उनके धर्मं पालन में सहायता कही जा सकती है, धर्म पर आघात नहीँ। कम्युनिस्ट तो मूर्ति के अतिरिक्त धर्म को भी समाज को बहकाने वाला अफीम मानते हैं। यदि वे सचमुच मार्क्स या लेनिन के अनुयायी हैं तो उनको अपने सही मार्ग पर लाने का आभारी होना चाहिये।

 

कई लोगों ने बहुत भावुक होकर भगत सिंह को लेनिन की जीवनी पढ़ कर प्रेरणा लेने वाला कहा है। पर लेनिन की मृत्यु के ६ वर्ष के भीतर भगत सिंह को फांसी दी गई थी। जेल की अकेली कोठरी में उनके पास कुछ नहीं था तो बिना छपी हुई लेनिन की जीवनी वे कैसे पढ़ रहे थे?

 

लेनिन तथा भगत सिंह की प्रायः हर बात एक दूसरे की उलटी है। रूस के जार साम्राज्य को कमजोर करने के लिए ब्रिटेन ने लेनिन को अपना एजेंट बनाया था। हर बार वे मदद तथा छिपने के लिए ब्रिटेन भाग जाते थे। हर देश के विद्रोही अभी तक ब्रिटेन में ही शरण लेते हैं जैसे भारत के फिजो, लालडेंगा, जगजीत सिंह या लंका के प्रभाकरण। पर भगत सिंह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह कर रहे थे।

 

जार के समय रूस संसार का सबसे शक्तिशाली देश था। पर लेनिन माध्यम से षडयन्त्र द्वारा वह पिछड़ गया और पुनः ब्रिटेन अमेरिका की बराबरी करने में ४० वर्ष लग गए। भगत सिंह भारत की उन्नति के लिये अपना बलिदान कर रहे थे।

 

जार के शासन में केवल अपराधियों को जेल का दण्ड दिया गया था। पर लेनिन ने हर गांव तथा मुहल्ले के कई परिवारों के सभी बच्चे बूढ़ों की हत्या करवायी जिनका कोई दोष नहीं था। अपने देश के करीब ४० लाख निर्दोष लोगों की हत्या की। भगत सिंह ने अपने एक भी देशवासी की हत्या नहीँ की।

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Arun Upadhyay

Arun Upadhyay is a retired IPS officer. He is the author of 10 books and 80 research papers.
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