शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव के बारे में कुछ तथ्य जो आपको पता होना चाहिए

मार्च २३। शहीद दिवस। १९३१, दिन सोमबार, समय शाम के ७.३०, जगह: लाहौर जेल। इस दिन, २४ साल के भगत सिंह, २३ साल के सुखदेव और राजगुरू को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था।
 
ब्रिटिश राज की इस क्रूरता को अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के दिलों में डर पैदा करने के लिए यह कृत्या किया गया था, लेकिन ब्रिटिश असफल रहे। देश भर से हजारों भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव उभर आए। अंत में अंग्रेजो को भारत छोड़ना पड़ा!
 
क्या हमे उनका यह बलिदान सिर्फ २३ मार्च को ही याद रखना चाहिए? नहीं! शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान से हम आज खुली हवा में सांस ले रहे है। जिस उम्र में हम अपने दोस्तों यारों में उल्जहे रहते है उस उम्र में इन शहीदों ने देश के लिए अपना प्राण बलिदान दे दिए।
 
क्या आप जानते हैं कि जब शहीद सुखदेव छोटा बच्चा था तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी? उनको उनके चाचा लाला अचिंतराम ने पालन पोषण किया। सुखदेव स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के एक सक्रिय वरिष्ठ सदस्य होने के अलावा, उन्होंने पंजाब और उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी समूह बनाये।
 
बचपन से ही राजगुरू अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के साथ किए गए अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। राजगुरू के घर छोड़ने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। वह स्कूल में अंग्रेजी सब्जेक्ट में फ़ैल हुए। उनके बड़े भाई ने उन्हें अपनी नई दुल्हन के सामने दंडित किया। दंड यह था की उन्हें एक अंग्रेजी अध्याय पढ़कर सुनाना था। नाराज होकर राजगुरू ने अपना घर छोड़ा। उनके जेब में केवल ११ पैसे थे।
 
राजगुरू शास्त्रों के विद्वान थे। वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हुए। उन्हें रघुनाथ भी कहा जाता था। वह जल्द ही एक निशानेबाज शूटर बन गए और उन्हें, ‘एचएसआरए के गनमैन’ कहा जाता था। एक दिन राजगुरु खुद को गर्म लोहे की छड़ी को छु रहे थे। जब चंद्रशेखर आजाद ने उन्हें इस बारे में पुछा तो उन्होंने जवाब दिया कि यह यातना सहन करने की एक परीक्षा है! क्यों की पुलिस द्वारा कभी भी पकड़ें जा सकते थे!
 
जब शहीद भगत सिंह का उम्र १२ वर्ष था तब जल्लीनवाला बाग नरसंहार हुआ था जहां ब्रिटिशों ने हजारों निहत्थे लोगों की हत्या कर दी थी। वह वहा खून में लिपटे हुए हज़ारो मृत शरीर के गवाह थे। यह दृश्य उन्हें बहोत परेशान किया था। तब से उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करना शुरू कर दिया था। वह १५ वर्ष की आयु में युवा क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए। जब भगत सिंह २० वर्ष का था, उनके माता-पिता ने उनकी शादी तय की। वह शादी से बचने के लिए कानपुर भाग गए। एक पत्र छोड़ गए जिसपे लिखा था – “मेरी जिंदगी देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित है। इसलिए, कोई भी आराम या सांसारिक इच्छा मुझे आकर्षित नहीं कर सकती है”।
 
शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु गांधीजी की अहिंसा नीति और असहयोग आंदोलन के खिलाफ थे। तीनो अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के साथ, सक्रिय रूप से कई क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थीं।
 
३० अक्टूबर १९२८ को लाहौर में लाला लाजपत राय ने एक विरोध मार्च का नेतृत्व किया। जेम्स ए स्कॉट तब लाहौर के पुलिस अधीक्षक थे। लाला लाजपत राय और उनके अनुयायियों ने साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि इस कमिशन में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था। स्कॉट ने प्रदर्शनकारियों को लाठी प्रहार का आदेश दिया। लाला लाजपत राय और हजारों लोग घायल हुए थे। १७ दिनों के बाद चोटों के कारण राय का निधन हुआ। लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, शिवराम राजगुरू, सुखदेव थापर और अन्य लोगों ने स्कॉट को मारने की योजना बनाई थी। लेकिन गलती से उन्होंने लाहौर में सॉन्डर्स को मार दिया। पुलिस उन्हें नहीं पकड़ सके।
 
भगत सिंह की अगली बड़ी कोशिश थी भारत विरोधी विवाद अधिनियम और लोक सुरक्षा विधेयक के खिलाफ विरोध करते हुए केन्द्रीय विधान सभा के अंदर एक बम विस्फोट करना। दिन था ८ अप्रैल १९२९। विस्फोट सफल रहा। बट्टुकेश्वर दत्त के साथ सिंह ने यह अंजाम दिया था। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों को घायल करने और विधानसभा की कार्यवाही में बाधा डालने में सफल हुए। दोनों ने जोर जोर से ‘इंकालाब जिंदाबाद’ के नारे लगाए। वे नहीं भागे। उन्हें गिरफ्तार किया गया। मुकदमा चलने के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
 
इस बीच, एचएसआरए ने लाहौर और सहारनपुर में बम फैक्ट्रियों की स्थापना की थी। १५ अप्रैल १९२९ को पुलिस ने लाहौर फैक्ट्री को सील किया और कुछ दिनों बाद सहारनपुर कारखाने को भी सील कर दी। सुखदेव, किशोरी लाल और जय गोपाल सहित कई एचएसआरए सदस्यों को गिरफ्तार किया गया। हंस राज वोहरा, पी.एन घोष, जय गोपाल जैसे कुछ एचएसआरए सदस्यों ने पुलिस के लिए इंफोर्मेर्स बन गए। उनकी जानकारी के आधार पर, ब्रिटिश पुलिस ने भगत सिंह, जतिन दास, सुखदेव और राजगुरु सहित २१ क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया। तीन परस्पर जुड़े मामलों – लाहौर हत्या (सैंडर्स), विधानसभा बमबारी और बम निर्माण में उन्हें दोषी माना गया।
 
जेल में रहने के दौरान, जतिन दास और भगत सिंह एक भूख हड़ताल पर बैठे थे, जो भारतीय और यूरोपीय कैदियों के बीच दिखाए गए विशाल भेदभाव के खिलाफ था। ६४ दिन की भूख हड़ताल के बाद, १३ सितंबर १९२९ को जतिन दास शहीद हुए।
 
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गयी। १४ फरवरी १९३१ को उन्हें बचाने के लिए लॉर्ड इरविन के सामने दया याचिका दायर की गई थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रपति मदन मोहन मालवीय ने याचिका दायर की थी, जिन्होंने बाद में १९३४ में पार्टी छोड़ दी थी। लेकिन उनके प्रयास विफल रहे। इसके बाद सिंह और साथी कैदियों को जेल से भगाने के लिए एक योजना का क्रियान्वयन किया गया। लेकिन उस प्रयास में भी असफल रहे। एक अंतिम प्रयास भगवती चरण ने किया था, जिन्होंने इसी उद्देश्य के लिए बम का निर्माण करने का प्रयास किया था। वह एक एचएसआरए सदस्य, दुर्गा देवी के पति थे। दुर्भाग्य से, इससे पहले कि वह इस योजना को पूरा कर सके, बम अकस्मात विस्फोट हुआ, जिससे उनकी मौत हो गई थी।
 
आखिरकार, भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी गई। गंदा सिंह वाला गांव के बाहर सुबह सुबह उनके शरीर का गुप्त रूप से अंतिम संस्कार किया गया। राख को सतलज नदी में बहा दिया गया था। बाकी क्रांतिकारियों में से तीन को बरी कर दी और बाकियो को कम सजा सुनाई गयी थी।
 
मौत की सजा मुख्य रूप से हंस राज वोहरा, पी.एन घोष, और जय गोपाल के दिए गए सबूतों पर आधारित थी। अगर वे गवाही न देते, तो इतिहास अलग होता!
 
भारत के बलिदान के लिए प्रत्येक शहीद और प्रत्येक स्वतंत्रता सेनानी को सलाम! जय हिन्द!

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Manoshi Sinha is a writer, history researcher, avid heritage traveler; Author of 8 books including 'The Eighth Avatar', 'Blue Vanquisher', 'Saffron Swords'.
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