भागवत पुराण में प्रकाश गति के अनुसार दूरी की माप
आधुनिक भौतिक विज्ञान में दूरी माप की ८ इकाइयां हैं-मनुष्य माप के अनुसार इंच, फुट (पैर की लम्बाई), गज (हाथ की लम्बाई), फैदम (पुरुष, सिर के ऊपर हाथ फैलाने पर ऊंचाई), पृथ्वी की माप के अनुसार (नौटिकल मील, मीटर की एक परिभाषा), ज्योतिषीय इकाई (पृथ्वी कक्षा का दीर्घ अक्ष), इस दूरी से जितनी दूरी पर १ सेकण्ड का कोण बनेगा वह परसेक, उसका १००० गुणा किलो-परसेक या १० लाख गुणा मेगा-परसेक। प्रकाश १ वर्ष में जितनी दूरी तय करता है वह १ प्रकाश वर्ष। प्रकाश गति के अनुसार मीटर की परिभाषा १९८३ में तय हुई जब उसकी सूक्ष्म माप सम्भव हुई। मीटर परिभाषाओं का इतिहास नीचे है।
मीटर की ४ परिभाषायें-१ सेकण्ड के अर्द्ध-चक्र वाले दोलक (पेण्डुलम, ) की लम्बाई। यह पृथ्वी के आकर्षण के साथ बदलता है, तथा सेकण्ड की सही माप पर निर्भर है। दूसरी परिभाषा दी गयी-पृथ्वी की ध्रुवीय परिधि-पाद का कोटि भाग। बाद में अधिक सूक्ष्म गणना से पता लगा कि यह मापदण्ड इस परिभाषा से १/५ मिलीमीटर छोटा है, पर इसका प्रयोग आरम्भ हो गया था, अतः इसी को १८८९ इस्वी में मीटर मान लिया गया। किसी भी धातु छड़ की लम्बाई ताप-क्रम के अनुसार घटती बढ़ती है, अतः १९२७ में प्लैटिनम-इरीडियम मिश्रधातु की छड़ बनायी गयी, जिसकी लम्बाई में तापक्रम के कारण बहुत कम परिवर्तन होता है। इस धातु की छड़ पर ०० तापक्रम पर २ चिह्न दिये गये जिनके बीच की दूरी को मीटर कहा गया। जब प्रकाश के तरंग दैर्घ्य की सूक्ष्म माप होने लगी, तब १९६० में क्रिप्टन के ८६ भारवाले अणु के २-पी १) से (५-डी-५) स्थितियों के बीच इलेक्ट्रन के स्थानान्तर से उत्पन्न प्रकाश के तरंग दैर्घ्य का १६,५०,७८३.७३ गुणा को मीटर कहा गया। बाद में प्रकाश की शून्य में गति की माप भी मीटर तक शुद्ध होने लगी तथा परमाणु घड़ी से समय की भी उतनी सूक्ष्म माप सम्भव हुयी जिससे १ मीटर में प्रकाश गति के समय की माप हो सके तो प्रकाश गति द्वारा इसकी परिभाषा दी गयी। १९८३ से मीटर की परिभाषा है शून्य आकाश में सेकण्ड के २९,९७,९२,४५८ भाग में प्रकाश द्वारा तय की गयी दूरी।
आश्चर्य है कि भागवत पुराण अध्याय (३/११) में प्रकाश गति के अनुसार दूरी की माप दी गयी है। उस समय भी प्रकाश गति की सूक्ष्म माप सम्भव होगी। प्रकाश गति के आधार पर योजन की माप को प्रकाश योजन कहा जा सकता है।
प्रकाश योजन-आकाश में पृथ्वी को ही सहस्रदल कमल माना गया है। इसके १ दल अर्थात् व्यास के १००० भाग को प्रकाश जितने समय में पार करता है, उस समय को त्रुटि कहा गया है-
कमलदलन तुल्यः काल उक्तः त्रुटिस्तत्, शतमिह लव संज्ञस्तच्छतं स्यान्निमेषः। (वटेश्वर सिद्धान्त, मध्यमाधिकार, ७)
योक्ष्णोर्निमेषस्य खराम भागः स तत्परस्तच्छत भाग उक्ता। त्रुटिर्निमेषैर्धृतिभिश्च काष्ठा तत् त्रिंशता सद्गणकैः कलोक्ता॥
(सिद्धान्त शिरोमणि, मध्यमाधिकार, २६)
कमल-दल को सूई से छेदने का समय निश्चित नहीं है, अतः इसे माप की इकाई नहीं कह सकते। यह पृथ्वी रूपी कमल के बारे में है और सूई का अर्थ यहां प्रकाश किरण ही हो सकती है।
जालार्क रश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात्। त्रसरेणु त्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः॥ (भागवत पुराण ३/११/५)
यहां वायु में धूल कणों को अणू कहा है तथा ऐसे ३ अणु को त्रसरेणु। ३ त्रसरेणु को प्रकाश जितनी देर में पार करेगा उसे त्रुटि कहा है। पर यह ज्योतिष में व्यवहृत त्रुटि से बहुत छोटा होगा। अतः बीच की बहुत सी इकाइयां लुप्त हैं।
पृथ्वी का व्यास १००० त्रुटि (प्रकाश किरण द्वारा तय की गयी दूरी) लेने पर परिधि प्रायः ३००० त्रुटि होगी जो निमेष के बराबर है। ब्रह्मा की सृष्टि का आधार या पाद (पद्म) पृथ्वी है, इसे मर्त्य ब्रह्मा कहते हैं। यही सूर्य रूपी विष्णु का नाभि कमल है। विष्णु के १ निमेष में ब्रह्मा की २ परार्द्ध आयु पूरी होती है।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्॥१॥ पद्भ्यां भूमिः … ॥१३॥ (पुरुष सूक्त)
कालोऽयं द्विपरार्द्धाख्यो निमेषो उपचर्यते। अव्याकृतस्यानन्तस्य अनादेर्जगतात्मनः॥ (भागवत पुराण ३/११/३७)
त्रुटि सेकण्ड का ३३,७५० भाग है। १ सेकण्ड में प्रकाश २,९९,७९२.४५६ कि.मी. दूरी पार करता है। अतः प्रकाश योजन = २,९९,७९२.४५६/३३७५० = ८.८८२७४ कि.मी.।
सौर मण्डल का प्रतिरूप मनुष्य शरीर में विज्ञान आत्मा है, जो हृदय में रहकर बुद्धि का नियन्त्रण करता है। ब्रह्म रन्ध्ररूपी अणुपथ से होकर सूर्य तक प्रकाश की गति से महापथ द्वारा सम्पर्क होता है। अतः ऋक् (३/५३/८) में कहा गया है कि यह १ मुहूर्त्त में ३ बार सूर्य तक जाकर लौटता है।
सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। (वाज. यजुर्वेद ७/२२)
तदेते श्लोकाः भवन्ति-अणुः पन्था विततः पुराणो मां स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव। तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्गं लोकमित ऊर्ध्वं विमुक्ताः॥८॥ तस्मिञ्छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च। एष पन्था ब्रह्मणा ह्यनुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित् पुण्यकृत्तेजसश्च॥९॥ (बृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/८-९)
अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङलाणिम्नस्तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष पीत एष लोहितः॥१॥ तद्यथा महापथ आतत उभौ ग्रामौ गच्छन्तीमां चामुं चामुष्मा-दादित्यात् प्रतायन्ते ता आसु नाडीषु सृप्ता आभ्यो नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमुष्मिन्नादित्ये सृप्ताः॥२॥ … अथ यत्रैतद् अस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैतैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रामते स ओमिति वा होद्वामीयते स यावत्क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छत्येतद्वै खलु लोकद्वारं विदुषा प्रपदनं निरोधोऽवदुषाम्॥५॥ (छान्दोग्य उपनिषद् ८/६/१,२,५)
ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तदोकोऽग्रज्वलनं तत् प्रकाशित द्वारो विद्यासामर्थ्यात्तच्छेषगत्यनुस्मृति योगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया। २-रश्म्यनुसारी। ३- निशि चेन्न सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद्दर्शयति च। ४-अतश्चायनेऽपि दक्षिणे।
मैत्रायणी उपनिषद् (६/३) भी द्रष्टव्य।
सूर्य की दूरी १५ कोटि कि.मी. को प्रकाश ३ लाख कि.मी./ सेकण्ड की गति से ५०० मिनट या प्रायः ८ मिनट में पार करेगा। अतः १ मुहूर्त्त = ४८ मिनट में यह ३ बार जाकर लौट आयेगा-
त्रिर्ह वा एष (मघवा= इन्द्रः, आदित्यः-सौरप्राणः) एतस्या मुहूर्त्तयेमां पृथिवी समन्तः पर्य्येति। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४/९)
रूपं रूपं मघवा बोभवीति मायाः कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्त्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥ (ऋक् ३/५३/८)
इसी अर्थ में आदित्य (जिस क्षेत्र से सूर्य का आदि, उत्पत्ति हुयी) को सम्वत्सर कहा जाता है। जहां तक १ वर्ष या सम्वत्सर में सूर्य से प्रकाश पहुंचता है, वह भी सम्वत्सर या सूर्य केन्द्रित १ प्रकाश वर्ष का गोल है।
सम्वत्सरः स्वर्गा (सौर क्षेत्र)-कारः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/१/५/२)
वाक् (सूर्य क्षेत्र) सम्वत्सरः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १०/१२/७)
इस प्रजापति में ही देव उत्पन्न (सौर क्षेत्रों के प्राण) होते हैं-सम्वत्सरः प्रजापतिः। (शतपथ ब्राह्मण १/६/३/३५, १०/२/६/१, ऐतरेय ब्राह्मण १/१,१३, २/१७, ४/२५ आदि)
सम्वत्सरो वै देवानां जन्म। (शतपथ ब्राह्मण ८/७/३/२१)
इसके बाद वरुण क्षेत्र है-सम्वत्सरो वरुणः। (शतपथ ब्राह्मण ४/४/५/१८ आदि)
ब्रह्मा के अहोरात्र में प्रकाश जहां तक आता-जाता है, वह दृश्य जगत् या तपः लोक है- ब्रह्मा तपसि (प्रतिष्ठितम्) । (ऐतरेय ब्राह्मण ३/६, गोपथ ब्राह्मण उत्तर ३/२)
तेजोऽसि तपसि श्रितम्। समुद्रस्य प्रतिष्ठा। …. तपोऽसि लोके श्रितम्। तेजसः प्रतिष्ठा। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/११/१/२-३)
सूक्ष्म मापों का एक उदाहरण शतपथ ब्राह्मण में भी है-
एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानि नक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ ब्राह्मण १०/४/४/२)
= इन लोमगर्त्तों से ऊपर ज्योति (तारा) हैं। जितने ज्योति हैं, उतने नक्षत्र हैं। जितने नक्षत्र हैं उतने लोमगर्त्त हैं।
पुरुषो वै सम्वत्सरः॥१॥ दश वै सहस्राण्यष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृत्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति पञ्चदशकृत्वः एतर्हीणि। यावन्त्येतर्हीणि तावन्ति पञ्चदशकृत्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृत्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः तावन्तो ऽनाः। यावन्तोऽनाः तावन्तो निमेषाः। यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोकाः वर्षन्ति॥५॥ एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह बार्कलिः। सार्वभौमं मेघं वर्षन्तवेदाहम्। अस्य वर्षस्य स्तोकमिति॥।६॥ (शतपथ ब्राह्मण १२/३/२/५-६)
= पुरुष संवत्सर (के समान) है। १ संवत्सर में १०,८०० मुहूर्त्त हैं। १ मुहूर्त्त = १५ क्षिप्र, १ क्षिप्र = १५ एतर्हि, १ एतर्हि = १५ इदानी, १ इदानी = १५ प्राण, १ प्राण = १५ अक्तन (अन), १ अक्तन = १५ निमेष, १ निमेष = १५ लोमगर्त्त, १ लोमगर्त्त = १५ स्वेदायन। जितने स्वेदायन हैं उतने ही स्तोक (जल विन्दु) बरसते हैं। विद्वान् बार्कलि ने यह कहा-मैं सार्वभौम (सभी प्रकार के) मेघ जानता हूं। सभी मेघों में इतने ही स्तोक हैं।
१ वर्ष में लोमगर्त्त = १०८०० x १५-७ = १.८४५ x १०१२ (शरीर की कोष संख्या)
पुरुष विश्व का १० गुणा है-अत्यत्तिष्ठद्दशाङ्गुलम् (पुरुष सूक्त १)। अतः प्रायः १०११ तारा ब्रह्माण्ड में या विश्व में १०११ ब्रह्माण्ड हैं।
स्वेदायन के २ अर्थ हैं-मेघ में इतने जल-विन्दु हैं। सार्वभौम मेघ का अर्थ है सभी प्रकार के आकाश के मेघ या वराह-जिनमें कणों की संख्या वर्ष में स्वेदायन संख्या के बराबर = २.५ x १०१३ है। इससे ४ गुणी बड़ी संख्या (१०१४) को यजुर्वेद में समुद्रीय या जलधि कहा है।
ब्रह्माण्ड में तारा गणों के बीच खाली आकाश में विरल पदार्थ का विस्तार वाः या वारि कहा गया है, क्योंकि इसने सभी का धारण किया है (अवाप्नोति का संक्षेप अप् या आप्)। यह वारि का क्षेत्र होने से इसके देवता वरुण हैं।
यदवृणोत् तस्माद् वाः (जलम्)-शतपथब्राह्मण (६/१/१/९)
आभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यसि यदिदं किञ्चेति तस्माद् आपोऽभवन्, तदपामत्वम् आप्नोति वै स सर्वान् कामान्। (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/२)
यच्च वृत्त्वा ऽतिष्ठन् तद् वरणो अभवत् तं वा एतं वरणं सन्तं वरुण इति आचक्षते परोऽक्षेण। (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/७)
इस अप्-मण्डल का विस्तार पृथ्वी की तुलना में १०१४ है, अतः १०१४ = जलधि। जलधि का अर्थ सागर है, १०१४ एक सामान्य सागर में जलविन्दुओं की संख्या है। कैस्पियन सागर (सबसे बड़ी झील) का आकार ५००० वर्ग कि.मी. ले सकते हैं, औसत गहराई १कि.मी.। एक जल विन्दु का आयतन १/३० घन सेण्टीमीटर है, इससे गणना की जा सकती है। आकाश का वारि-क्षेत्र (ब्रह्माण्ड) सौर पृथ्वी से १०७ गुणा है, जो पृथ्वी ग्रह का १०७ गुणा है। अतः जलधि को जैन ज्योतिष में कोड़ाकोड़ी (कोटि का वर्ग) या सागरोपम कहा गया है।
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा (वाज. यजु. ३८/७)-अयं वै समुदो योऽयं (वायुः) पवतऽएतस्माद् वै समुद्रात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्रवन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/२/२/२)
मनश्छन्दः… समुद्रश्छन्दः (वाज. यजु. १५/४)-मनो वै समुद्रश्छन्दः। (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/४)
ब्रह्माण्ड के समुद्र में जितने तारा या नक्षत्र हैं, उतने ही मनुष्य मस्तिष्क के भी कण (सेल) हैं। अतः दोनों मन हैं और ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण काल मन्वन्तर (प्रायः ३०.४८ करोड़ वर्ष) है। आधुनिक काल में यह माप अभी तक नहीं हो पाई है। ब्रह्माण्ड केन्द्र की सूर्य द्वारा परिक्रमा काल २०-२५ करोड़ वर्ष मानते हैं।
सूर्य ब्रह्माण्ड केन्द्र से ३०,००० प्रकाश वर्ष दूरी (त्रिज्या प्रायः ५०,००० प्रकाश वर्ष) पर सर्पिल भुजा में है। सर्पिल भुजा को पुराण में शेषनाग तथा वेद में अहिर्बुध्न्य कहा है। । भागवत पुराण में इसे ३०,००० योजन कहा है।
भागवत पुराण (५/२५)-अस्य मूलदेशे त्रिंशद् योजन सहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी
समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृ दृश्ययोःसङ्कर्षणमहमित्यभिमान लक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्ष्यते॥१॥
यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः सहस्रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षाणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते॥२॥
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